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Saturday, January 13, 2018

दोहा गीत - अरुण कुमार निगम

गूंगे बतलाने चले, देखो गुड़ का स्वाद
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

हाल हंस का देख कर, मैना बैठी मूक
मान मोर का छिन गया, कोयल भूली कूक।।
गर्दभ गायन कर रहे, कौवे देते दाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

गायें लावारिस हुईं, कुत्ते बैठे गोद
विज्ञ हाशिये पर गए, मूर्ख मनाते मोद।।
भैंस खड़ी पगुरा रही, कैसे हो संवाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

चमगादड़ पहना रहे, उल्लू के सिर ताज
शेर-बाघ हैं जेल में, गीदड़ का है राज।।
निर्णायक है भेड़िया, कौन करे फरियाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

अश्रु बहाने के लिए, तत्पर हैं घड़ियाल
लड़े जहाँ पर बिल्लियाँ, बंदर खाते माल।।
सभी जगह यह हाल है, नहीं कहीं अपवाद।
अंधा बाँटे रेवड़ी, रखो कहावत याद।।

रचनाकार - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

Tuesday, January 9, 2018

दोहा गीत - अरुण कुमार निगम

दोहा-गीत

वन उपवन खोते गए, जब से हुआ विकास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

पवन विषैली आज की, पनप रहे हैं रोग ।
जल की निर्मलता गई, आये जब उद्योग ।।
अजगर जैसे आज तो, शहर निगलते गाँव ।
बुलडोजर खाने लगे, अमराई की छाँव ।।

वर्तमान में हैं सभी, सुविधाओं के दास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

रही नहीं मुंडेर अब, रहे नहीं अब काग ।
पाहुन अब आते नहीं, मिटा स्नेह-अनुराग ।।
वन्य जीव की क्या कहें, गौरैया भी लुप्त ।
रहा नहीं वातावरण, जीने को उपयुक्त ।।

उत्सव की संख्या बढ़ी, मन का गया हुलास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

पुत्र पिता-हन्ता हुआ, माँ के हरता प्राण ।
मनुज मशीनों में ढला, कौन करे परित्राण ।।
भाई भाई लड़ रहे, कैसा आया दौर ।
राम-राज दिखता नहीं, रावण हैं सिरमौर ।।

प्रतिदिन होता जा रहा, मानवता का ह्रास ।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास ।।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़