काव्य मंच की गरिमा खोई, ऐसा आज चला है दौर
दिखती हैं चुटकुलेबाजियाँ, फूहड़ता है अब सिरमौर ।।
कहीं राजनेता पर फब्ती, कवयित्री पर होते तंज
अभिनेत्री पर कहीं निशाना, मंच हुआ है मंडी-गंज ।।
मौलिकता का नाम नहीं है, मर्यादा होती अब ध्वस्त
भौंडापन कोई दिखलाता, पैरोडी में कोई मस्त ।।
तथाकथित कवियों में पनपा, सभी तरफ अब लॉबीवाद
एक सूत्र "तू मुझे याद कर - तुझे करूंगा मैं भी याद" ।।
सम्प्रदाय की बातें कहकर, कोई लगा रहा है आग
देव तुल्य हस्ती के दामन, कोई लगा रहा है दाग ।।
नाम वीर-रस का ले लेकर, चीख रहे कुछ बन कर वीर
देश-प्रेम का ढोंग रचा कर, छोड़ रहे विष-भीने तीर ।।
अचरज लगता जिन्हें नहीं है, साहित का थोड़ा भी ज्ञान
सरकारें ऐसे कवियों का, आज कर रही हैं सम्मान ।।
सबका हित हो जिसमें शामिल, वही कहाता है साहित्य
भेदभाव को तज कर जैसे, रश्मि बाँटता है आदित्य ।।
पहले के कवियों का लेते, अब भी हम श्रद्धा से नाम
बचपन में जिनको सुनते थे,जाग-जाग कर रात तमाम ।।
काका हाथरसी की कविता, शिष्ट हास्य का थी भंडार
देश प्रेम की गंग बहाने, आते थे अब्दुल जब्बार ।।
नीरज के आते बहती थी, हृदय-कर्ण में रस की धार
मंत्रमुग्ध होते थे श्रोता, सुन उनका दर्शन श्रृंगार ।।
शैल,चक्रधर, हुल्लड़, माया, सोम, शरद, सोलंकी, व्यास
मधुप, प्रभा, नूतन, बैरागी, ऐसे कितने कवि थे खास ।।
अब भी अच्छे कवि हैं लेकिन, कौन उन्हें देता है मंच
आयोजन करवाने वाले, आयोजक ही रहे न टंच ।।
अच्छे-सच्चे कवि को लेकिन, नहीं रहा मंचों का मोह
अगर मंच का नशा चढ़ा तो, समझो लेखन का अवरोह ।।
अगर सहज ही मंच मिले तो, मत हो जाना मद में चूर
सच्ची कवितायें ही पढ़ना, रह लटके-झटके से दूर ।।
सुहावने हैं ढोल दूर के, आज - मंच हों या सम्मान
अरुण दे रहा है आल्हा में, वर्तमान का सच्चा ज्ञान ।।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
दिखती हैं चुटकुलेबाजियाँ, फूहड़ता है अब सिरमौर ।।
कहीं राजनेता पर फब्ती, कवयित्री पर होते तंज
अभिनेत्री पर कहीं निशाना, मंच हुआ है मंडी-गंज ।।
मौलिकता का नाम नहीं है, मर्यादा होती अब ध्वस्त
भौंडापन कोई दिखलाता, पैरोडी में कोई मस्त ।।
तथाकथित कवियों में पनपा, सभी तरफ अब लॉबीवाद
एक सूत्र "तू मुझे याद कर - तुझे करूंगा मैं भी याद" ।।
सम्प्रदाय की बातें कहकर, कोई लगा रहा है आग
देव तुल्य हस्ती के दामन, कोई लगा रहा है दाग ।।
नाम वीर-रस का ले लेकर, चीख रहे कुछ बन कर वीर
देश-प्रेम का ढोंग रचा कर, छोड़ रहे विष-भीने तीर ।।
अचरज लगता जिन्हें नहीं है, साहित का थोड़ा भी ज्ञान
सरकारें ऐसे कवियों का, आज कर रही हैं सम्मान ।।
सबका हित हो जिसमें शामिल, वही कहाता है साहित्य
भेदभाव को तज कर जैसे, रश्मि बाँटता है आदित्य ।।
पहले के कवियों का लेते, अब भी हम श्रद्धा से नाम
बचपन में जिनको सुनते थे,जाग-जाग कर रात तमाम ।।
काका हाथरसी की कविता, शिष्ट हास्य का थी भंडार
देश प्रेम की गंग बहाने, आते थे अब्दुल जब्बार ।।
नीरज के आते बहती थी, हृदय-कर्ण में रस की धार
मंत्रमुग्ध होते थे श्रोता, सुन उनका दर्शन श्रृंगार ।।
शैल,चक्रधर, हुल्लड़, माया, सोम, शरद, सोलंकी, व्यास
मधुप, प्रभा, नूतन, बैरागी, ऐसे कितने कवि थे खास ।।
अब भी अच्छे कवि हैं लेकिन, कौन उन्हें देता है मंच
आयोजन करवाने वाले, आयोजक ही रहे न टंच ।।
अच्छे-सच्चे कवि को लेकिन, नहीं रहा मंचों का मोह
अगर मंच का नशा चढ़ा तो, समझो लेखन का अवरोह ।।
अगर सहज ही मंच मिले तो, मत हो जाना मद में चूर
सच्ची कवितायें ही पढ़ना, रह लटके-झटके से दूर ।।
सुहावने हैं ढोल दूर के, आज - मंच हों या सम्मान
अरुण दे रहा है आल्हा में, वर्तमान का सच्चा ज्ञान ।।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)