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Thursday, July 13, 2017

दोहा छन्द

दोहा छन्द

नैसर्गिक दिखते नहीं, श्यामल कुन्तल मीत
लुप्तप्राय हैं वेणियाँ, शुष्क हो गए गीत।।

पैंजन चूड़ी बालियाँ, बिन कैसा श्रृंगार
अलंकार बिन किस तरह, कवि लाये झंकार ।।

घट पनघट घूंघट नहीं, निर्वासित है लाज
बन्द बोतलों में तृषा, यही सत्य है आज ।।

प्रियतम की पाती गई, गए अबोले बैन
रहे न अब वे डाकिया, जिनको तरसें नैन ।।

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, July 9, 2017

*रोला छन्द* - *गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें*

*गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें*

गुरु की महिमा जान, शरण में गुरु की जाओ
जीवन  बड़ा  अमोल, इसे  मत  व्यर्थ गँवाओ
दूर   करे   अज्ञान , वही   गुरुवर   कहलाये
हरि  से  पहले  नाम, हमेशा  गुरु  का  आये ।।

*अरुण कुमार निगम*
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Monday, July 3, 2017

गजल : खुशी बाँटने की कला चाहता हूँ

गजल : खुशी  बाँटने की  कला  चाहता हूँ

न पूछें मुझे आप  क्या  चाहता हूँ
खुशी  बाँटने की  कला  चाहता हूँ |

गज़ल यूँ लिखूँ लोग गम भूल जायें
ये समझो सभी का भला चाहता हूँ |

बिना कुछ पिये झूमता ही रहे दिल  
पुन: गीत डम-डम डिगा चाहता हूँ |

न कोला न थम्सप न फैंटा न माज़ा
मृदा का बना  मैं  घड़ा  चाहता हूँ |

न पिज्जा न बर्गर न मैगी न नूडल
स्वदेशी  कलेवा  सदा  चाहता हूँ |

पुरस्कार के सच लगे दण्ड जैसे
इन्हें अब नहीं भोगना चाहता हूँ |

उठा आज डॉलर गिरा क्यों रुपैया
यही  प्रश्न  मैं  पूछना चाहता हूँ |

कहाँ खो गये प्रेम के ढाई आखर
मुझे साथ दो, ढूँढना चाहता हूँ |

हमें आ गया याद गाना पुराना
तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ

अरुण कुमार निगम 
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Sunday, July 2, 2017

गजल

शायद असर होने को है...


माँगने हक़ चल पड़ा दिल दरबदर होने को है
खार ओ अंगार में इसकी बसर होने को है |

बात करता है गजब की ख़्वाब दिखलाता है वो
रोज कहता जिंदगी अब, कारगर होने को है |

आज ठहरा शह्र में वो, झुनझुने लेकर नए
नाच गाने का तमाशा रातभर होने को है |

छीन कर सारी मशालें पी गया वो रोशनी
फ़क्त देता है दिलासा, बस सहर होने को है |

अब हकीकत को समझने लग गए हैं सब यहाँ
मुफलिसों की आह का शायद असर होने को है |


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Saturday, July 1, 2017

आप कितने बड़े हो गए हैं

ग़ज़ल पर एक प्रयास -

आप कितने बड़े हो गए हैं
वाह चिकने घड़े हो गए हैं

पाँव पड़ते नहीं हैं जमीं पे
कहते फिरते, खड़े हो गए हैं

दिल धड़कता कहाँ है बदन में
हीरे मोती जड़े हो गए हैं

पत्थरों की हवेली बनाकर
पत्थरों से कड़े हो गए हैं

शान शौकत नवाबों सरीखी
फिर भी क्यों चिड़चिड़े हो गए हैं ।

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)