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Thursday, November 27, 2014

अच्छे दिन –



पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं चाँद सरीखे, या फूलों जैसे होते हैं.

बेटा ! दिन तो दिन होते हैं ,गिनती के पल-छिन होते हैं
अच्छे बीतें तो सुखमय हैं, वरना ये दुर्दिन होते हैं.

पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं दूध-मलाई , या माखन जैसे होते हैं.

मंचों से मैं सुनते आया, स्वप्न सजीले बुनते आया
लेकिन देखे नहीं आज तक, अच्छे दिन कैसे होते हैं

पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं गुड़ियों जैसे , या परियों जैसे होते हैं.

गलियारों में रहा छानता , चौबारों में खोज चुका हूँ
अखबारों में ढूँढ रहा हूँ , अच्छे दिन कैसे होते हैं

पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं बरफी जैसे, या मिसरी जैसे होते हैं.

मेरे दादा बतलाते थे , उनको पुरखों ने बतलाया
बेटे अच्छे दिन तो बिल्कुल, रामराज जैसे होते हैं.

पापा पापा बतलाओ ना, रामराज कैसे आएगा
बेटा ! उस दिन ही आएगा, जब हर रावण मर जाएगा .


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Tuesday, November 18, 2014

गीत : बन्धन



बहुत कठिन है साथी मेरे , बंधन को परिभाषित  करना
बंधन सुख का कहीं सरोवर और कहीं है दु:ख का झरना ...

कोई बंधन रेशम जैसा,
कोमलता बस चुनता जाये
बिन फंदे के अंतर्मन तक ,
मीठे नाते बुनता जाये

कोई  बंधन  नागपाश-सा ,
कसता जाये - डसता जाये
विष बनकर फिर धीमे-धीमे,
नस-अन्तस् में बसता जाये

कोई  बंधन में  सुख पाये , कोई  चाहे  सदा उबरना  
बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना .......

नन्हें तिनकों वाला बंधन ,
नीड़ बुने ममता बरसाये
नन्हें चूजे  रहें सुरक्षित ,
हर पंछी को बहुत सुहाये

लोभ-मोह दिखला कर फाँसे,
बाँगुर का बंधन दुखदाई
जो फँसता माया-बंधन में
कब होती है भला रिहाई

कोई  चाहे  नाव  न छूटे, कोई  चाहे  पार  उतरना
बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना........

मृदा-मूल का बंधन गहरा ,
तरुवर को देता ऊँचाई
पूछ लता से देखे कोई ,
बंधन है कितना सुखदाई

अभिभूत कर देता सबको,
सात जनम का बंधन प्यारा
निर्धारित  करता  सीमायें ,
वरना  जीवन तो  बंजारा

कोई  बँधकर  रहना चाहे , कोई चाहे  मुक्त विचरना
बहुत कठिन है साथी मेरे, बंधन को परिभाषित करना....


अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर दुर्ग [छत्तीसगढ़]