आम पीर सहता क्यों,
गुठलियाँ समझती हैं
संत - साधना कैसी , वेदियाँ
समझती हैं
लाल की जवानी का , जश्न
हो चुका काफी
खैर क्या मनाना अब,
बकरियाँ समझती हैं
सास आज स्वागत में,
सौंपने लगी किस्मत
नव-वधू करेगी क्या ,
चाबियाँ समझती हैं
छुप-छुपा के आया है
, पास अपनी दादी के
कौन खुश हुआ ज्यादा,
कुल्फियाँ समझती हैं.
बात संसकारों की ,
फालतू नहीं होती
वक़्त बीत जाने पे , पीढ़ियाँ
समझती हैं
कोठियाँ उजालों में ,
क्यों उदास हैं इतनी
रात क्या हुआ होगा ,
खोलियाँ समझती हैं
भीड़ है हजारों की ,
कौन-कौन सच्चा है
और कौन भाड़े का ,
रैलियाँ समझती हैं
ये बिसात के खाने ,
चौंसठों बराबर हैं
है कहाँ बसर करना,
गोटियाँ समझती हैं
देह से न काठी से , हो
सका बड़ा कोई
हाथियों में दम कितना,चीटियाँ समझती हैं
झूमते शराबी को , राह
कौन दिखलाये
कौन पी रहा किसको,प्यालियाँ समझती हैं
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
बात संसकारों की , फालतू नहीं होती
ReplyDeleteवक़्त बीत जाने पे , पीढ़ियाँ समझती हैं
bahut badi bat kah dee hai aapne .very nice gazal arun ji .
छुप-छुपा के आया है , पास अपनी दादी के
ReplyDeleteकौन खुश हुआ ज्यादा, कुल्फियाँ समझती हैं...
क्या बात है अरुण जी ... इस ग़ज़ल का मज़ा ले रहा हूँ ... ओ बी ओ पे बस पढ़ पाया था ... हर शेर लाजवाब ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteक्या बात है
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